वैदिक गुरु दर्शन

योग और ध्यान व्यक्ति और उसका विकास

वैदिक गुरु दर्शन= वैदिक एक ऐतिहासिक प्राचीन परंपरा है( जिसे वैदिक बाद वेदवाद या प्राचीन हिंदू धर्म के रूप में जाना जाता है) आश्रय उसे धर्म से है जो वैदिक काल से भारत के भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी पश्चिमी भाग के निवासियों का प्रमुख धर्म था (है) वैदिक काल के ग्रन्थों मे वैदिक धर्म की मुख्य बातें समाहित है वैदिक धर्म के कुछ अनुष्ठान और चिकित्सा प्रणाली तो वर्तमान के समय में भी प्रचलन में है और जिस प्रकार हमारे समाज को मनोवैज्ञानिक तरीके से हमे इन संस्कारों से दूर किया गया वो भी ज्ञानीयो पुरी योजनाबद्ध था आज खुशी की बात यह है कि हमारा समाज समय अनुसार पुनः अपनी पौराणिक संस्कृतियों को समझने और जानने की ओर अग्रसर है और प्राकृतिक भी यही चाहती है कि हम सभी अपनी सभ्यता और मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य और अपनी जीवन शैली को उत्तम व्यवस्था के साथ लेकर आगे बढ़े जिसमें मानव कल्याण और समाज का कल्याण निहित है अपने ज्ञान, विज्ञान अनुसंधान, अनुष्ठान ,चिकित्सा प्रणाली जीवन शैली ,आध्यात्मिक विज्ञान ,मंत्र विज्ञान ,यंत्र विज्ञान ,वास्तु विज्ञान , योग विज्ञान ,हस्त मुद्रा विज्ञान , इस प्रकार की अनेकों अनेक ज्ञान और विज्ञान की विधियां मानव सभ्यता के उन्नति के लिए प्राकृतिक रूप से वैदिक परंपरा में व्यवस्थित है जो की पुरातन काल से मानव सभ्यता के उधर एवं उत्थान के लिए भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के लिए राष्ट्र के उत्थान के लिए यह ज्ञान विज्ञान स्वयं में परिपूर्ण है यधपि वर्तमान समय का हिंदू सनातनी वैदिक धर्म परंपरा से बहुत सीमा तक भिन्न है किंतु वैदिक धर्म से ही हमें स्वरूप मिला है, आज हम सभी को अपनी इस संस्कृति को पुनः समझने की आवश्यकता है और हम सभी अपने जीवन की एक ही पहलू को देख पा रहे हैं जो की अति आवश्यक है जिसे हम भौतिक जीवन और उसे पूर्ण करने के लिए जीविका उपार्जन की दिशा

गुरु शब्द का अर्थ= गुरु शब्द है या तत्व या ऐ शक्ति का रूप है हमें यह समझने की आवश्यकता है मैं गुरु कृपा से इस तत्व की व्याख्या सरल भाषा में करने की कोशिश करूंगा गुरु तत्व का उल्लेख चंद शब्दों में तो संभव नहीं मालूम पड़ता है समझने की बात यह है की गुरु कहना कहने मात्र तक ही सीमित है और मानने कि बात की तो अब समझने का अर्थ समाप्त हो जाता है क्यूँ ऐ तत्व हम सभी मे विराजमान है,इन दोनों शब्दोच्चार में बड़ा भेद है जो की ऐ एक गुण है ऐ अनुभव का विस्तार है ऐ प्रेम मे परमेश्वर का परमाआनन्द कि अनुभूती है गुरु शब्द का प्रयोग करने से या गुरु बोलने मे उन शक्तियों का कोई अनुभव नहीं मालूम पड़ता है अपितुः जैसे ही हम यह मानते हैं कि ऐ हमारे गुरु है हमारा मार्ग प्रशस्त करे सारे भेद समाप्त हो जाते है और गुरू के प्रती श्राद्ध प्रेेम मन मे जब उत्पन्न होती है तभी हम उस शक्ति से एकाकार हो जाते हैं जो ज्ञान है गुरु की कृपा और उनकी शक्ति इस ब्रह्मांड में यत्र तत्र सर्वत्र है ,हम सभी यह भली भांति जानते हैं कि इस पृथ्वी पर मनुष्यों की अनेकों अनेक प्रजातियां विभिन्न प्रकार से अपना जीवन यापन करते हैं परंतु इन समस्त विभिन्नताओं में गुरु या गुरु तत्व सदैव से एक ही है उस शक्ति को उस ज्ञान को सर्वोच्च माना गया है और गुरु सभी सभ्यताओं के लिए सर्वोच्च मार्गदर्शक शक्ति के रूप में ही सम्मानित है और उन्हें गुरु शब्द से ही संबोधित किया जाता है व्यक्ति विशेष या स्थान विशेष के नाम से नहीं देखा जाता है हमारे समाज में आनेको महान ज्ञानियों ने गुरु कि प्रदर्शित किया है और उनकी शक्तियों की व्याख्या और ज्ञान पूर्ण परंपराओं का उल्लेख हर प्रकार से बहुत ही सुंदर शब्दों में वर्णित किया है आज हमें यह समझना अति आवश्यक है कि हम सभी जिस शक्ति की बात कर रहे हैं उसमें जो क्षमताएं हैं जिसे गुरु तत्व कहते हैं वह हम सभी के चेतन

गुरु शिष्य संबंध= गुरु और शिष्य के संबंधो का उल्लेख हमारे वेदो मे ग्रन्थो मे पुुरान मे पुरातन काल से वर्णित है जो कि हम सभी को भली भांति मालूम और यह हम सभी जानते हैं गुरु और शिष्य का संबंध अति पवित्र और सर्वोच्च संबंधों में से एक संबंध है परम्परा कोई भी हो प्रजाति कोई भी हो पर गुरु और शिष्य की सिर्फ और सिर्फ एक ही परंपरा रही है और एक ही प्रजाति रही है जिससे गुरु और शिष्य के संबंधों से जाना जाता है जिसमें अटूट विश्वास अटूट प्रेम और गुरु के प्रति पुरी तरह समर्पित और ज्ञान के प्रति समर्पण विद्या के प्रती निष्ठा होता है गुरु और शिष्य के संबंधों की विशेषता मानो जैसे मानव शरीर के अंदर प्राण ऊर्जा बिना गुरु के शिष्य के भीतर प्राण ऊर्जा का परवाह ही नहीं गुरु ही शिक्षा के प्राण है और प्राण वायु है किंतु बड़े दुख की बात यह है आज कल गुरु शिष्य परंपरा धीरे-धीरे सिमटी हुई और संकुचित होती हुई प्रतीत हो रही है हम सभी को यह बात समझना अति आवश्यक है आज के कालखंड में की गुरु परंपरा गुरु शिष्य परंपरा या गुरुकुल की सभ्यता हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण और उपयोगी था यह तो हम सभी जानते हैं हमारे वैदिक ग्रन्थों मे भी गुरु और शिष्य की संबंधों की उल्लेख हर प्रकार से मिलती है और उनकी इन संबंधों की व्याख्या भी समय-समय पर सभी ज्ञानियों ने किया है की यह वैदिक रूप से स्थापित परंपरा है और इसमें गुरु के द्वारा विभिन्न प्रकार के ज्ञान विज्ञान वेद उपनिषद दर्शन ग्रंथ और आध्यात्मिक ज्ञान विज्ञान से लेकर विभिन्न प्रकार के कलाओं तक के वैदिक उत्तर और शास्त्रों की रचना का कार्य और संरचना प्रसारण का कार्य शिष्यों के माध्यम से किया जाता इनमे सबसे महत्वपूर्ण कार्य अध्यात्मीक दीक्षा सभी शिष्यों को गुरुकुल में रखकर गुरुकुल की परंपराओं के अनुसार शास्त्रागत रूप से शिक्षा और दीक्षा प्रदान की जाती थी जिस

गुरू स्तुति मंत्र एक प्रार्थना या स्तुति है जो गुरु के सम्मान और आशीर्वाद के लिए गाई जाती है। यहां एक प्रसिद्ध गुरू स्तुति मंत्र प्रस्तुत है:

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इस मंत्र का अर्थ है:

गुरु ब्रह्मा (सृजनकर्ता) हैं, गुरु विष्णु (पालनकर्ता) हैं, और गुरु महेश्वर (संहारकर्ता) हैं। गुरु साक्षात परब्रह्म (सर्वोच्च ईश्वर) हैं, ऐसे गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।

“गुरू मंत्र” का अर्थ होता है गुरु द्वारा अपने शिष्य को दिया गया मंत्र या उपदेश। यह मंत्र शिष्य के आध्यात्मिक और मानसिक विकास में सहायक होता है। इस मंत्र में गुरु का ज्ञान और अनुभव समाहित होता है, जो शिष्य को सही मार्ग दिखाने और उसकी आंतरिक शक्तियों को जागृत करने में मदद करता है। गुरू मंत्र का अभ्यास और अनुसरण शिष्य को जीवन में सही दिशा और मार्गदर्शन प्राप्त करने में सहायक होता है।गुरु दीक्षा के समय दीक्षित व्यक्ति को गुरु द्वारा एक विशेष मंत्र दिया जाता है जिसे गुरू मंत्र कहते हैं। यह मंत्र व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और उसे ध्यान, साधना तथा आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करता है। गुरु मंत्र प्रायः गुप्त रखा जाता है और इसे केवल गुरु और शिष्य के बीच ही साझा किया जाता है। यह मंत्र व्यक्ति की आत्मिक शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए दिया जाता है।
इस इमेज में दी गई सामग्री गुरुमंत्र से संबंधित प्रतीत होती है। यह सामग्री कुछ संस्कृत और हिंदी के मंत्र और उनके अनुवाद को दिखा रही है।

संस्कृत पाठ:

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥

हिंदी अनुवाद:
“`
जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, चर-अचर (जिसमें चल और अचल दोनों शामिल हैं) में मुझे असलियत की सच्ची दृष्टि से

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